इंटरनेट बढ़ाए या घटाए अकेलापन
Saturday, 1 December 2007
इंटरनेट बढ़ाए या घटाए अकेलापन
आदत से मजबूर हूँ, दफ्तर से घर लौटने के बाद भी लैपटॉप के कीबोर्ड पर ऊँगलियाँ चलती रहती हैं, बच्चा कहानी सुनाने को कहता है, बीवी बताती है कि दूध ख़त्म हो गया है, बाज़ार से ले आइए, तो झल्लाहट होती है.
दुनिया के अलग-अलग कोने में कीबोर्ड पर बैठे हुए लोग, किसी की रात, किसी की सुबह. किसी से चैट, किसी को ईमेल और फिर ऑर्कुट और फेसबुक भी तो हैं... कैसे रात के दो बज जाते हैं, पता ही नहीं चलता.
लोगों ने टीवी को कोसा, बड़े-बड़े शोध हुए कि किस तरह टीवी परिवार के भीतर आपसी संवाद की संभावना को समाप्त कर रहा है, जो परिवार का प्राइमटाइम था, वह टीवी का प्राइमटाइम बन गया.
वायरलेस ब्रॉडबैंड आ जाने के बाद तो घर में, कार में और यहाँ तक कि छुट्टियों में भी लोग कनेक्टेड हैं. टीवी देखने के बहाने तो बहुत कम थे लेकिन दफ़्तर का ज़रूरी काम, कॉलेज का असाइनमेंट, रिसर्च, ज़रूरी ईमेल जैसे अनेक बहाने हैं इंटरनेट के जाल में उलझे रहने के.
क्या मैं और मेरे जैसे लाखों-लाख लोग अपनी पारिवारिक-सामाजिक ज़िम्मेदारियों की क़ीमत पर ग्लोबलाइज़्ड दुनिया के सबसे अहम पहिए इंटरनेट को नहीं चला रहे?
कुछ दिन हुए माइक्रोसॉफ़्ट ने इंटरनेट पर 'दोस्ती बढ़ाने वाली साइट' फेसबुक का 1.6 प्रतिशत हिस्सा ख़रीदा, मैंने तब पूरे आँकड़े नहीं देखे थे, मुझे लगा कि नज़रअंदाज़ करने लायक ख़बर है, जब पता चला कि इसके लिए माइक्रोसॉफ़्ट ने पचीस करोड़ डॉलर अदा किए हैं तब जाकर आँखें खुलीं.
सिर्फ़ साढ़े तीन साल पहले बिना किसी बड़ी लागत के शुरू हुई 'लोगों को आपस में जोड़ने वाली' साइट की क़ीमत आँकी गई है 15 अरब डॉलर, क्योंकि मेरे जैसे पाँच करोड़ लोग इसकी सेवाओं का इस्तेमाल करते हैं.
हर रोज़ दो लाख लोगों को महसूस हो रहा है कि उन्हें दोस्ती करने के लिए, लोगों से जुड़ने के लिए फेसबुक का सहारा लेना होगा, आर्कुट, माइस्पेस जैसी साइटों को जोड़कर यह आँकड़ा पता नहीं कहाँ पहुँचेगा.
क्या अब हमारे आसपास सचमुच के लोग नहीं रहते जिनका हालचाल पूछा जाए, जिनके घर जाया जाए, जिनसे सुख-दुख साझा किया जाए?
कुचक्र?
अगर आप रात-दिन नेट पर ही लगे रहेंगे तो दोस्त कहाँ से बनेंगे, मेलजोल कहाँ होगा, लेकिन यह कितनी विचित्र बात है कि जिस वजह से आपको दोस्तों की कमी महसूस हो रही है उसी से आप समाधान की उम्मीद भी कर रहे हैं.
मैं बहुत ज्यादा वक़्त नेट पर बिताता हूँ और मुझे लगता है कि इस वजह से मैं लोगों से मिलना-जुलना तो दूर फोन पर भी लंबी बातचीत से कतराता हूँ. बीवी-बच्चे को वक़्त नहीं मिलता, फिर पड़ोसी और सहकर्मियों की बारी कहाँ आएगी.
ऐसे में नेट जो अकेलापन रचता है उसकी भरपाई हम ऑर्कुट और फेसबुक की आभासी दुनिया के ज़रिए करने की कोशिश करते हैं, ज़्यादातर लोग इस बात पर गर्व महसूस करते हैं कि उनकी प्रोफ़ाइल के बाद ब्रैकेट में कितनी बड़ी संख्या लिखी है यानी उनके कितने दोस्त हैं.
वैसे हम सब जानते हैं कि इनमें से शायद ही कोई हमारा सच्चा दोस्त हो सकता है जो आपकी आदतें, पसंद-नापसंद, आपके परिवार को जानता होगा, जैसे सचमुच के दोस्त जानते हैं.
ये सब वर्चुअल दोस्त हैं जो इंटरनेट की लत और व्यस्त नौकरीशुदा ज़िंदगी से उपजे ख़ालीपन आपस में भर लेने का भ्रम पालते हैं. यह भ्रम ज़रूरत बन रहा है क्योंकि हम मेलजोल का अपना सामाजिक दायरा जितना तंग बनाते जा रहे हैं हमें ख़ुद को बरगलाना पड़ रहा है कि ऐसा नहीं है, हमारे बहुत सारे दोस्त हैं.
असल में हम सब अपनी-अपनी दुनिया रचना चाहते हैं जहाँ सिर्फ़ हम हों, इंटरनेट ने इसे बहुत आसान बना दिया है. यह बात मुहावरे तक सीमित नहीं है, 'सेकेंड लाइफ़' की लोकप्रियता एक मिसाल है कि किस तरह लोग अपना वर्चुअल अवतार क्रिएट कर रहे हैं और उसे कितने प्यार से पाल रहे हैं.
अपनी-अपनी दुनिया में सब अकेले ही होंगे, जब उससे बाहर निकलेंगे तो दोस्तियाँ होंगी, रिश्ते बनेंगे.
ऐसा नहीं है कि ऑर्कुट या फेसबुक जैसी साइटों की अहमियत नहीं है, इनकी वजह से मेरे कई बिछड़े दोस्तों ने मुझे ढूँढ लिया, मेरे कई अज़ीज दोस्त जिनका अता-पता नहीं था वे मिल गए मगर जब मैं देखता हूँ कि इसके बदले में मैंने कितना वक़्त गँवाया है तो लगता है कि ख़ास फायदे का सौदा नहीं था.
इंटरनेट हमारे लिए अब बहुत नया तो नहीं है लेकिन वह रोज़ नया हो जाता है, तेज़ी से बदल रहा है, अभी हम सब इसे आज़मा रहे हैं लेकिन हमारे सहज सामाजिक जीवन पर इसे अधिक वक़्त देने के बुरे असर दिखने लगे हैं.
मैंने जितना समय नेट पर बिताया है अगर वह समय मैंने अगर सचमुच की दुनिया में बिताया होता तो शायद मेरे सचमुच के दोस्तों की तादाद ज़्यादा होती, लेकिन शायद वे भी कहीं चैट करने में व्यस्त हैं.
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