कैमरे के आगे नेताओं के बदलते रंग
Thursday, 14 June 2007
कैमरे के आगे नेताओं के बदलते रंग
स्टूडियों में घुसते ही अलग रंग में रंगे नज़र आते हैं
चटखदार रंग, डिजाइनर कपड़े, आक्रामक अंदाज, असरदार आवाज, हिंदी और अंगरेजी में धाराप्रवाह बोलने की क्षमता.
यह टेलीविज़न स्टूडियो में जन्म लेते भारतीय नेता का नया अवतार है. वह इस चैनल से निकलता है और दूसरे चैनल में प्रवेश कर जाता है. लगातार बहस करता है, जैसे मुल्क की हर समस्या का हल उसके पास है.
भारतीय राजनीति में टेलीविज़न एक बड़ी ताकत बनकर उभरा है. दोगुनी होती केबल-घरों की संख्या की वजह से धूप-पानी झेले बिना ही नेताओं की बातें हर ड्राइंगरूम तक पहुँचने लगीं हैं.
कैमरे पर फैशनपरस्त अभिजात दिखना भी एक अच्छी राजनीति बना.
भाजपा के राजीव प्रताप रूड़ी हों या कांग्रेस के ज्योतिरादित्य सिंधिया, लगातार प्रतिक्रियाएँ देते प्रकाश जावड़ेकर हों या पार्टी की वकालत करते अभिषेक मनु सिंघवी, न्यूज़ चैनलों के पास ज़मीन से जुड़े नेताओं के लिए भी जगह है.
लालू प्रसाद यादव उनकी पहली पसंद हैं. मायावती को हर कोई स्टूडियो लाना चाहता है.
यूपीए की सरकार बनी तो डी राजा और एबी वर्द्धन भी कैमरे का मोह नहीं छोड़ पाए.
राजनीतिक टीकाकार महेश रंगराजन इसे 'टेलीविज़न सेवी राजनीतिक बिरादरी का जन्म' मानते हैं.
रंग बदलते कुरते
भाजपा के प्रवक्ता प्रकाश जावड़ेकर आमतौर पर फ़ैब इंडिया के कुरते पहनते हैं लेकिन कैमरे के लिए वह कई रंग के कुरते ख़रीद लाए हैं जिन्हें सेट के हिसाब से पहनते हैं.
वह स्टूडियो जाने से पहले तस्दीक कर लेते हैं, सेट का रंग क्या है? अलबत्ता अब स्मृति ईरानी भी एक पसंद बनकर उभर रही हैं.
टीवी कलाकार होने के नाते उन्हें रंगों की अच्छी समझ होना स्वाभाविक है.
''कुरते का रंग कोई असर नहीं डालता. आपके राजनीतिक व्यक्तित्व की संजीदगी दिखनी चाहिए. विषय पर पकड़ होनी चाहिए, क्योंकि सवाल कभी भी कहीं से भी आ सकता है
सत्यव्रत चतुर्वेदी, कांग्रेस महासचिव
चटखदार रंगों के शर्ट पहनने के मामले में तो अभिषेक मनु सिंघवी भी पूरा ध्यान रखते हैं, लेकिन रंगों की पसंद मामले में ज्य़ोदिरादित्य सिंधिया को ज्यादा बेहतर माना जाता है.
सचिन पायलट बिना मेक-अप के स्टूडियो में जाना पसंद करते हैं.
हालांकि कांग्रेस महासचिव सत्यव्रत चतुर्वेदी की राय थोड़ी जुदा है ''कुरते का रंग कोई असर नहीं डालता. आपके राजनीतिक व्यक्तित्व की संजीदगी दिखनी चाहिए. विषय पर पकड़ होनी चाहिए, क्योंकि सवाल कभी भी कहीं से भी आ सकता है.''
स्टूडियो में गरमागरम बहस करना इस बिरादरी की असल ताकत है.
भाजपा की राजनीति पर निगाह रखने वालों का तो मानना है कि अरुण जेटली जैसे नेता अपने इसी गुण के कारण प्रथम पंक्ति में आ गए.
वेंकैया नायडू को इस बात का पूरा ख़्याल है कि बाइट कितनी महत्वपूर्ण चीज़ है.
कैमरामैन के तैयार होते ही वह पूछते हैं 'रोल?' कैमरामैन के हाँ करने के बाद दस सेकंड का पॉज लेते हैं. फिर बोलना शुरू करते हैं.
वह उन नेताओं में से नहीं हैं जो अब भी यही समझते हैं कि पूरा कैसेट उन्हीं के लिए है.
कई नेता तो आजकल यह भी पूछने लगे हैं कि एंकर कौन है और दूसरी पार्टी से कौन आ रहा है.
अपेक्षाकृत कम चर्चित एंकर या अपने से कम दर्जे के नेता के साथ स्टूडियो में आने को कोई तैयार नहीं.
बहस
ज़ाहिर है सारी बहस मुल्क़ और आम आदमी के लिए है. लेकिन अहम सवाल यह है कि क्या स्टूडियो की गरमागरम बहस में भी अहम मुद्दे पीछे छूट जाते हैं?
रंगराजन याद दिलाते हैं " एनडीए ने पिछले चुनाव में प्रचार की ज़बरदस्त योजना बनाई थी और तमिलनाडु में 80-90 फ़ीसदी नेटवर्क रखने वाले सन टीवी ने करुणानिधि का बेहद प्रचार किया लेकिन नतीजे उलटे निकले. ''
भाजपा नेता अरुण जेटली टीवी के आगे प्रदर्शन में निपुण माने जाते हैं
उनका कहना है,'' एनडीए का प्रचार सुनियोजित था लेकिन वह भी सत्ता में नहीं लौट पाया. टेलीविजन का कोई असर नहीं हुआ. कारण यह है कि टेलीविजन राजनीति को राजनीतिविहीन कर रहा है, उसने राजनीति को खेल बना दिया है."
नेताओं के झगड़े, रूठना-मनाना, गरियाना, बचाना- एक बड़े एकांकी के दृश्य हैं.
फिर भी कैमरे ने नेताओं के सामने सत्य को ठेठ हालत में ला खड़ा किया है. अब उन्हें क्षेत्रीय अख़बारों के संस्करणों के हिसाब से सत्य बोलने की सुविधा नहीं रही.
होंडा के कर्मचारियों पर हरियाणा पुलिस की लाठियाँ हों या गुजरात के दंगों में मोदी सरकार की भूमिका- सबसे बड़ी चुनौती, कैमरा सामने है तो कुछ बोलना ही पड़ेगा और जो बोल दिया, वह दिख रहा है.
सत्यव्रत चतुर्वेदी भी मानते हैं ''नेताओं के लिए अब बयान से मुकरना आसान नहीं रहा. जो मुकरेगा वह अपनी विश्वसनीयता की कीमत पर. बयान से मुकरने की समस्या काफ़ी घटी है.''
खूबियों की तलाश
भाजपा प्रवक्ता प्रकाश जावड़ेकर के मुताबिक, ''अख़बार और टीवी में 24 घंटे का फ़र्क़ है. लिहाजा जब आप टीवी पर कोई प्रतिक्रिया देते हैं या कोई किसी घटना की ख़बर आती है तो उसकी प्रतिध्वनि भी तत्काल आती है.
एनडीए का प्रचार सुनियोजित था लेकिन वह भी सत्ता में नहीं लौट पाया. टीवी का कोई असर नहीं हुआ. कारण यह है कि टीवी राजनीति को राजनीतिविहीन कर रहा है, उसने राजनीति को खेल बना दिया है
महेश रंगराजन, विश्लेषक
उनका कहना है, '' कैमरे पर नेता के पास समय भी कम है, इसलिए उसे सटीक वनलाइनर बोलना आना चाहिए.''
भाजपा ने देशभर के अपने प्रवक्ताओं को बुलाकर न्यूज़ चैनलों के बारे में ख़ास प्रशिक्षण भी दिया.
नेता समझ रहे हैं कि कैमरे पर सत्य काफ़ी ज़्यादा दिखता है.
जावड़ेकर कहते हैं ''शब्दों से जो व्यक्त होता है कैमरा उससे ज़्यादा बोलता है. इसलिए यह निहायत ज़रूरी है कि कैमरे के सामने आपकी बॉडी लैंग्वेज एकदम सही हो.''
वास्तव में बड़ी संख्या में न्यूज चैनलों और अख़बारों के सामने आने के बाद ही पार्टियों को स्थाई तौर पर प्रवक्ता रखने पड़े.
सत्यव्रत चतुर्वेदी की राय में विषय को जानने वाला व्यक्ति '' अगर सीमित शब्दों में और प्रभावशाली तरीक़े से प्रस्तुतीकरण करता है तो उसका प्रभाव ज़्यादा पड़ता है. इसलिए पार्टियों को प्रवक्ता चुनते समय या पैनल में नेताओं को भेजते समय इन गुणों का ख़्याल रखना ही पड़ता है.''
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