समाचारों का फ़ुटपाथीकरण
Thursday, 14 June 2007
समाचारों का फ़ुटपाथीकरण
भारत में पिछले एक वर्ष में समाचार चैनलों ने समाचार का रंग ही बदल दिया है
जब हिंदी में पत्रिकाएँ खत्म हो रही थीं, तब अचानक ऐसी पत्रिकाओं की बाढ़ आई जिनकी शुरूआत 'मनोहर कहानियाँ' ने की थी.
'मनोहर कहानियाँ', 'सच्ची कहानियाँ' जैसी पत्रिकाओ से फुटपाथ अटे पड़े रहते थे, अभी भी शायद यह थोड़ा बहुत चल रहा है.
लेकिन ऐसा लग रहा है कि उन्हें निकालने वाले बेरोज़गार नहीं हुए, वे सारे टीवी समाचार चैनलों में चले गए, या यह कहें कि वह जज़्बा ख़त्म नहीं हुआ, वह फ़ुटपाथ से उठकर तमाम अपने भोंडे रंगो, बदबू आदि के साथ टीवी समाचार चैनलों में चला गया.
अब अगर हम कोई भी टीवी समाचार चैनल खोले तो ऐसा लगता है जैसे 'मनोहर कहानियाँ' और 'सच्ची कहानियाँ' खोल कर बैठे हैं.
अपराध और सेक्स की सनसनीखेज़ दस्तावेज सारे समाचार चैनल 'एफ़आईआर', 'क्राइम फाइल',' क्राइम रिपोर्टर' और न जाने क्या-क्या नामों के कार्यक्रम पेश करते हैं.
ये सभी अपनी भाषा और प्रस्तुति में फ़ुटपाथी साहित्य को मात करते हैं, बल्कि सुना जा रहा है कि इस सफलता से खुश होकर एक दृश्य मीडिया समूह अपराध समाचारों का एक पूरा अलग चैनल ही शुरू करने जा रही है.
प्रिंट मीडिया एक बुढ़ाते बड़े भाई की तरह पीछे-पीछे घिसट रहा है.
मीडिया और अपराध
अगर अपराध न हों तो मीडिया वाले ऐसा शून्य महसूस करेंगे जैसा पहली प्रेमिका के जाने के बाद होता है
हम लोग राजनीति, फ़िल्म, व्यापार आदि से अपराध के संबंधों पर बड़ी चर्चा करते रहते हैं लेकिन मीडिया और अपराध के हम-संबंध पर चर्चा नहीं होती.
अगर अपराध न हों तो मीडिया वाले ऐसा शून्य महसूस करेंगे जैसा पहली प्रेमिका के जाने के बाद होता है और अगर सेक्स परोसने पर पाबंदी लग जाए तो कई चैनलों और पत्र पत्रिकाओं को उसतरह कोरे पन्ने छोड़ने पड़ेंगे जैसे आपातकाल में सेंसरशिप के ख़िलाफ़ कुछ पत्र-पत्रिकाओं ने किया था.
अपराध और सैक्स परोसने के कई फायदे हैं. एक तो ख़ुद को भी मजा आता है सनसनी और गुदगुदाहट से.
हमारे मार्केटिंग वाले भी खुश रहते हैं क्योंकि आपराधिक मार्केंटिंग वालों का विश्वास है कि जितना घटिया माल, उतना बेचना आसान.
मार्केटिंग वालों की खुशी में पत्रकारों की खुशी हैं क्योंकि आजकल वे ही माई बाप है.
आसानी
सबसे बड़ा फ़ायदा यह है कि अपराध और सेक्स परोसने में अक़्ल का इस्तेमाल बिलकुल नहीं करना पड़ता है
और सबसे बड़ा फ़ायदा यह है कि अपराध और सेक्स परोसने में अक़्ल का इस्तेमाल बिलकुल नहीं करना पड़ता है, जिसकी बेहद कमी मीडिया में खास तौर पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में है.
सुना है कि कई चैनल 30-40 आई क्यू से ज़्यादा वाले लोगों को नौकरी नहीं देते.
अपराध और सेक्स बेचने पर जब कोई आ जाए तो इसका मतलब है कि उसका दिमाग़ दिवालिया हो का है, उसके पास सोचने को कुछ नहीं बचा है, इसीलिए वह सबसे आसान विकल्प पर आ चुका है.
फिर सेक्स और अपराध बेचकर नैतिक दिखा जा सकता है, क्योंकि बेचने का एंगल तो वहीं होता है -छी-छी देखिए कितना गंदा है.
फ़िलहाल मामला फुटपाथ के स्तर पर चल रहा है.
और ज़ीने पर जाएगा तब क्या होगा पता नहीं, लेकिन वहाँ भी कुछ तो भाई लोग तलाश ही लेंगे.
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