पढ़िए पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ का लेख

Wednesday, 27 February 2008


कई महीनों की उथलपुथल के बाद, जिसमें देश की एक बड़ी नेता बेनज़ीर भुट्टो की हत्या और उसके बाद पैदा हुई गड़बड़ियाँ शामिल हैं, पाकिस्तान ने एक अहम चुनाव को सफलतापूर्वक आयोजित किया है.
यह चुनाव पाकिस्तान के 60 वर्षों के इतिहास में एक मील का पत्थर है.
पाकिस्तान में लोकतंत्र क़ायम करना देश की जनता में मेल-मिलाप लाने के लिए आवश्यक है, सरकार ने सोमवार के चुनाव को स्वतंत्र, निष्पक्ष, पारदर्शी और शांतिपूर्ण बनाने के लिए अथक प्रयास किया.
कई नए क़दम उठाए गए जैसे कि हर मतदान केंद्र पर वोटों की जनता की आँखों के सामने गिनती, हमने यह सुनिश्चित किया कि यह पाकिस्तान के इतिहास का सबसे निष्पक्ष चुनाव हो.
इस चुनाव का ऐतिहासिक महत्व है और यह पाकिस्तान और अमरीका के सामने मौजूद चुनौतियों और अवसरों पर ईमानदार चर्चा करने का मौक़ा भी है.
इस्लामाबाद में एक स्थिर, लोकतांत्रिक सरकार देखने की जितनी इच्छा पाकिस्तानी जनता की है, अमरीका भी इसके लिए उतना ही इच्छुक है.
हमारे देश के सामने तीन मुख्य चुनौतियाँ हैं--आतंकवाद और चरमपंथ को हराना, एक स्थिर और कारगर लोकतांत्रिक सरकार बनाना और निरंतर आर्थिक विकास की बुनियाद रखना.
मैं आश्वस्त हूँ कि हम इन तीनों लक्ष्यों को हासिल कर सकते हैं कि पाकिस्तान के अधिकतर लोगों का ध्येय भी यही है. इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए मैं पाकिस्तान की नवनिर्वाचित पार्लियामेंट के साथ मिलकर काम करने के लिए तैयार हूँ.
क्या हम अब भी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, जी हाँ बिल्कुल. क्या आगे बेहतरीन अवसर हैं, जवाब है--जी बिल्कुल. हमारी अर्थव्यवस्था मज़बूत है दिनोंदिन बेहतर हो रही है. हमारी सेना लगनशील तथा दक्ष है जो क़ानून-व्यवस्था और राजनीतिक व्यवस्था की ईमानदारी सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध है.
सबसे बड़ी बात है कि हमारे देश के 16 करोड़ लोगों में से ज्यादातर लोग उदारवादी इस्लाम में विश्वास रखते हैं, वे राष्ट्रीय स्तर पर खुशहाली चाहते हैं जो सिर्फ़ आधुनिकीकरण से आ सकती है.
आतंकवाद
जहाँ तक आतंकवाद की बात है तो मैं अपनी राय स्पष्ट शब्दों में रखना चाहता हूँ, पाकिस्तान आतंकवाद का सामना कर रहा है और इस मुसीबत से पूरी लगन से जूझ रहा है. और हम जूझें भी क्यों नहीं? अल क़ायदा और उसके सहयोगियों ने सभ्य समाज, उदारवादी सरकार और पाकिस्तान की जनता को अपना निशाना बनाया है.
कुछ लोगों ने चरमपंथ से लड़ने के मामले में हमारी प्रतिबद्धता पर सवाल उठाए हैं. सच ये है कि अल क़ायदा और तालेबान से लड़ते हुए पिछले चार वर्षों में पाकिस्तान ने अपने एक हज़ार से अधिक सैनिक गवाँए हैं. हमारे एक लाख बारह हज़ार सैनिक अफ़ग़ानिस्तान की सीमा पर पूरी तरह मुस्तैद हैं.
हम अपने पुराने साझीदार अमरीका के साथ पाकिस्तान को आतंकवाद से मुक्त कराने की साझा लड़ाई मिलकर लड़ते रहेंगे.
लेकिन जैसा कि इराक़ में अमरीकी अनुभव से समझ में आता है कि सैनिक ताक़त ही काफ़ी नहीं है. एक सफल आतंकवाद विरोधी रणनीति के बहुमुखी नज़रिए की ज़रूरत होती है--सैनिक, राजनीतिक और आर्थिक. हमारी राजनीतिक रणनीति है कि हम अफ़ग़ानिस्तान से लगने वाली सीमा के पास रहने वाले आम नागरिकों और चरमपंथियों को अलग-अलग करें. हमारी आर्थिक रणनीति है कि हम इन इलाक़ों में शिक्षा और आर्थिक विकास के फ़ायदों को पहुँचाएँ और उन्हें नए अवसर दें.
इतिहास ने हमें साफ़ तौर पर सिखाया है कि जब भी लोगों का जीवन और उनके बच्चों का रोज़मर्रा का जीवन बेहतर होता है तो वे हिंसा के रास्ते से अलग हटकर शांति और सदभाव की ओर मुड़ते हैं.
लेकिन हमारी सफलता के लिए अमरीका के निरंतर सहयोग की ज़रूरत है. मैं चाहता हूँ कि अमरीकी ये याद रखें कि आदर्श स्थितियों में भी लोकतंत्र स्थापित करना कठिन काम होता है, पाकिस्तान जैसे एक जटिल देश में जहाँ राजनीतिक इतिहास अस्थिर रहा है, जहाँ हिंसक चरमपंथी लोकतंत्र को नाकाम करने पर तुले हैं, वहाँ यह काम और ज्यादा चुनौतीपूर्ण है.
जैसा कि इतिहास ने दिखाया है कि लोकतंत्र की शांतिपूर्ण स्थापना के लिए सरकार की अगुआई और जनता में लोकतांत्रिक मूल्यों को अपनाने की इच्छा होनी चाहिए. पाकिस्तान की जनता ने सोमवार को अपनी इस इच्छा का इज़हार कर दिया है. अब सरकार का नेतृत्व करने वालों को मिलकर बाक़ी का काम करना होगा.
वाशिंगटन पोस्ट / बीबीसी से साभार

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